sanskrit shlok । संस्कृत हमारी बहुत ही प्राचीन भाषा है । हमारे सभी बेद पुराण सब संस्कृत में लिखे गए हैं । सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि भारत में एक प्रतिशत लोग संस्कृत सही तरीके से नहीं जानते हैं । और जो जानते हैं वो इन पुराणों का अर्थ तोड़ मरोड़ कर पेश करते हैं । क्योंकि बहुत से लोगों को संकृत का विशेष ज्ञान नहीं है । अगर संस्कृत मे निबंध लिखना चाहते हैं तो Sanskrit me nibandh kaise likhe | संस्कृत में निबंध कैसे लिखें पढ़कर जानकारी ले सकते हैं ।

इस पोस्ट में बहुत संस्कृत श्लोक मैं लिख रहा हूं जो बहुत प्रचलित हैं तथा जीवन पर्यन्त उपयोगी भी हैं । ये सब समाज के लिए एक आईना का कार्य करते हैं ।

sanskrit shlok अर्थ सहित
आइए जानते हैं कि वो कौन कौन से श्लोक हैं जो बहुत ही हितकारी और लाभदायक हैं ।Sanskrit Shlok संस्कृत श्लोक और उसका अर्थ हिंदी में
भूमेः गरीयसी माता , स्वर्गात उच्चतर: पिता ।
जननी जन्मभूमिश्च , स्वर्गात अपि गरीयसी ॥
अर्थ : अर्थात जन्मभूमि से श्रेष्ठ माँ है , और स्वर्ग से ऊंचा पिता का स्थान है । माता और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं ।
गुरुब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:
गुरुर्साक्षात परंब्रहम तस्मै श्री गुरुवे नमः ॥
अर्थ: गुरु ही ब्रह्मा है , गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान विष्णु है । गुरु ही साक्षात परम ब्रह्म है , ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ ।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
Sanskrit Shlok
अर्थ : कर्म करना तुम्हारा अधिकार है ,लेकिन फल की चिंता करना तुम्हारा काम नहीं है । इसलिए कर्म करो फल की इक्षा मत करो , क्योंकि फल देना मेरा काम है ।
विद्या ददाति विनयं विनयाद याति पात्रताम् ।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ।।
Sanskrit Shlok
अर्थ : विद्या हमें विनम्रता देती हैं , विनम्रता से योग्यता आती है और योग्यता से हमे धन प्राप्त होता है । जिससे हम धर्म का कार्य करते हैं और बदले में हमे सुख मिलता है ।
न चोर हार्यम् न च राज हार्यम् ,
न भ्रातु भाज्यम् न च भारकारि ।
व्यये कृते वर्धते एव नित्यम् ,
विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ।।
अर्थ : विद्या का धन सभी धनों से श्रेष्ठ होता है । न ही चोर चुरा सकता है , ना राजा इसे जबरन छीन सकता है और न ही भाई इसे बांट सकता है । इस धन का कोई भार नहीं होता है इसको इसको बांटने से इसमें निरंतर बृद्धि हाेती है । Sanskrit Shlok संस्कृत श्लोक और उसका अर्थ हिंदी में ।
शुश्रुषस्व गुरून् कुरु प्रियसखीवृत्तिम् स्पत्निजने
भर्तुर्विप्रकृताSपि रोपणतया मा स्म प्रतीपं गमः ।
भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भाग्येष्वनुत्सेकिनी
यान्तेवम् गृहिनिपदं युवतयो वामाः कुलस्याधयः ।।
अर्थ – गुरुजनों की सेवा करना , पत्नियों के साथ प्रिय सखी का सा व्यवहार करना , तिरस्कृत होकर भी क्रोधबस पति के विपरित आचरण न करना , सेवक सेविकाओं के प्रति पर्याप्त उदार रहना , भाग्य पर अभिमान मत करना , ऐसा व्यवहार करने वाली युवतियां गृहलक्ष्मी के पद को प्राप्त करती हैं , और इसके विपरीत आचरण करने वाली युवतियां कुल के लिए दुख का कारण बनती हैं ।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासात् ज्ञानाद्वयानम् विशिष्यते ।
ध्यानात्मकर्मफलत्यागः त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।।
अर्थ – मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से और शास्त्र पढ़ने से परमेश्वर स्वरूप का जो अनुमान ज्ञात होता है , उसी को यहां ज्ञान के नाम से जानना चाहिए , और ज्ञान से मुझ परमेश्वर का ध्यान श्रेष्ठ है , ध्यान से भी सभी कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है तथा त्याग से तत्काल ही परम् शान्ति होती है ।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वेमयोगसंसिद्धः कलेनात्मनि विन्दन्ति ।।
अर्थ – इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है । उस ज्ञान को कितने ही कल से कर्म योग के द्वारा शुद्धांतकरण हुआ मनुष्य आत्मा में पा लेता है या अनुभव करता है ।
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगत स्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्भुनिरुच्यतेः।।
तथा दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं है सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये है ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञाप्रतिष्ठिता।
(और जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित दुआ उस शुभ या अशुभ वस्तुओं प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिरत है।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीनिन्द्रयांर्थेभ्यः तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठित।।
जिस प्रकार से कछुआ सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है उसी प्रकार से मनुष्य अपनी इंद्रियों को इंद्रियों के विषयों से सभी प्रकार से हटा लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर है ।
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगतष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति, सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धध।।
हे अन्तर्यामी, यह योग्य ही है कि जो आपके गुण और प्रभाव के कीर्तन से जगत् अति हर्षित हो रहा और अनुराग को भी प्राप्त हो रहा है तथा भयभीत राक्षस लोग दिशाओं में भाग रहे हैं और सिद्धगणों के समुदाय नमस्कार कर रहे हैं।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासात् ज्ञानाद्धयान विशिष्यते।
ध्यानात्मकर्मफलत्यागः त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।
मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से और शास्त्र पढ़ने से परमेश्वर स्वरूप का जो अनुमान ज्ञात होता है उसी को यहां ज्ञान नाम से जानना चाहिए और ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है तथा ध्यान से भी सभी कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है तथा त्याग से तत्काल ही परम् शान्ति होती है।
उत्तमः पुरुषत्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
ह्यो लोकत्रयाविश्य विभर्ति अव्यय ईश्वरः ।।
उत्तम पुरुष तो वह है जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका भरण पोषण करता है। वह अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा है, ऐसे कहा गया है।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।।
मैं नाशवान जड़वर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूं और माया में स्थितअविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूँ। अतः लोक में और वेद में भीपुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध है।
यत्र योगेश्वरः कृष्णः यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयभूति धुवा नीतिर्मतिर्म।।
जहां योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन है वहाँ ऐसा मेरा मानना है श्री विजय, विभूति और अचल नीति है ।Sanskrit Shlok
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षमिष्यामि मा शुचः।
सभी धर्मों को अर्थात् सभी कर्तव्यों को त्यागकर केवल मुझ सर्वशक्तिमान सर्वाधार परमेश्वर की शरण में आ जाओ। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा , तू शोक मत कर। Sanskrit Shlok
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषो्तमम् ।
सः सर्वद्भिजाति मा सर्वभानेन भारत।।
हे अर्जुन ! जिस प्रकार से जो सबसे ज्ञानी पुरुष मुझे पुरुषोत्तम के रूप में जानता है। वह सर्वज्ञ पुरुष निरन्तर मुझे वासुदेव परमेश्वर को भजता है।Sanskrit Shlok
Sanskrit Shlok और भी श्लोक का अर्थ जानना चाहते हैं तो कृपया कमेन्ट करके जानकारी ले सकते हैं।https://motivenews.net
धन्यवाद
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